STORYMIRROR

Akshat Shahi

Drama

4  

Akshat Shahi

Drama

इंसानों का शहर

इंसानों का शहर

1 min
23.5K

जाने इस शहर को क्या हो गया 

इंसान होना जो उसको मुश्किल हुआ

कोई औरत कोई आदमी हो गया 

बढ़ता गया जितना जुनून-ऐ-जवानी


कम होती गयी उतनी तबेदारी

फिर वो खुद पर फ़िदा हो गया

शौंक उड़ने का सबको था बाग़ में

पंछिओं से बातें करता रहा वो पेड़


फिर अपने शौंक का बीमार हो गया

पंछिओं को उड़ते देखता है दिन भर

कुछ सीखा है शाम के जलसे से सबने

अब बरगद को भाता नहीं खजूर का पेड़


खजूर को बरगद की उम्र का खोफ हो गया

कुछ की हाँ में हाँ अब भी मिलता है

जहाँ मौका मिले खुद की जय बुलाता है

ये सिलसिला अब रोज़ का हो गया


हिसाब रखा जाता है क़ुर्बानिओ का यहाँ

कौन है जो अकेला चुप चाप बैठा है

कुर्बानियों से क्या वो कुर्बान हो गया

हर पहर कपडडे बदलता है और रंग भी


इंसान है इंसान रहने की कोशिश में है

बेटा दिन में नौकर रात को शौहर ही गया।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Drama