ग़ज़ल
ग़ज़ल
गुल भी है गुलशन की आबोहवा है
यह पर्दा रुख से हटा कर तो देखो
यह दीवारों इतनी जिद्दी नहीं हैं
एक खिड़की ज़रा बना कर तो देखो
शामों में अब भी उजाला है बाकी
जाम-ऐ-ग़म गिरा कर तो देखो
मकाँ में रंगों की महफ़िल मिलेगी
माज़ी जाले हटा कर तो देखो
सुना है एक आशिक़ फौत-ऐ-ज़दा है
मेहबूब ज़रा बुला कर तो देखो।