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Akshat Shahi

Abstract Inspirational

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Akshat Shahi

Abstract Inspirational

मैं कब आज़ाद हुआ

मैं कब आज़ाद हुआ

2 mins
378


जब माँ की कोख़ में बरफिर्क़ 

भवसागर में गोते खा रहा था 

निर्मित हो रहा था मेरा शरीर

मेरी चेतना को मिल रहा स्वरुप 

नयी संभावनाओं का हो रहा जन्म 

मछली की तरह तैरता था मैं।


बस गर्भनली से बंधा था 

सीमाओं दायरों से बेखबर 

पोषण का स्रोत पहचान गया 

 उजाले में आया आखिरकार 

आंखें खुली तो गर्भनली नहीं मिली 

पोषण को अब भी माँ पर आश्रित 

कभी कभी उड़ने का एहसास लेता 


पिता के सक्षम काँधों पर बैठ कर 

ऊँचे पेड़ पर जन्मी चिड़िया के जैसा 

नीचे देख कर पंख फड़फ़ता चहक कर

उड़ने के एहसास से खिलखिलाता 

सर के ऊपर से चिड़िया उड़ती देखता 


समझ नहीं पाता था काँधों का सच 

उड़ाते हैं या उड़ने से रोकते हैं यह काँधे 

कांधे थक गाये तो ज़मीन पर कदम पड़े

आत्मिक कमज़ोरी का पहला एहसास किया 

चलते पैरों ने फिर नयी आज़ादी को जन्मा 


सब दिशाओं का ज्ञान मिल गया 

माँ पीछे भागती मैं रास्ता बदलता 

गर्भनली की सीमओं को भूलता गया 

अब दीवारों से मिलना हुआ अचानक 

उन पर चढ़ जाना मुमकिन नहीं था 


वानर की तरह उछलना और कठिन था 

उछल भी जाता तो कहाँ चला जाता 

खीर का कटोरा लिए माँ पीछे खड़ी थी 

जब खुले मैदान में भाग रहा था 

पिता साथ भाग रहे थे कदम मिला कर 

माँ मुझे भागते देख खुश हो रही थी 


उसकी खीर ने कमाल कर दिया था 

उसका अष्वमेध यज्ञ सफल हो गया 

मैं घोड़े पर सवार होने के काबिल था 

अब मैं आज़ाद था दिशाओं दीवारों से 

हर पेड़ का हर फल पा लेने को आज़ाद 


फिर खोल दी झोली भरने लगा आम

वो जो सबसे रसीले मीठे मीठे आम 

आमों से भी पेट भरा है कभी किसी का 

रोटी पकाने को साधन खोजने लगा 


रोटी की बात आयी तो माँ लौट आयी 

लौट आया गर्भसेतु सब सीमाओं के साथ 

मैदान की ठंडी हवाएं में दीवारे याद आयीं 


पहली बार इंसान होना मुमकिन लगा 

तब से अब तक खुद को इंसान कहता हूँ 

चेतना को अपने काँधे उठाये पर घूमता हूँ। 


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