गर्भ
गर्भ
माँ और धरती के गर्भ में
जहाँ रोशनी की गुजांईश नही
अंधेरे में जन्म लेती हैं जिन्दगी
हिन्सक पीड़ा उत्पन करता है
सतह फाड़ कर अंकुरित होना
आँखें भींच कर बन्द कर लेता है
रोशनी से घबरा कर नया बच्चा
खूब रोता है दिन महीने साल,
चिपका रहता है माँ के जिस्म से
गोद में भी सिंकुड लेता है पसलियां
वहीं गर्भ में वापिस जाना चाहता है
आखिर छोड़ना ही पड़ता है गर्भ
हवा पानी ग्रहण करना पड़ता है,
शुरू होती है यात्रा आकाश की ओर
बाकी सबसे ऊँचे चले जाने की होड़
मोटे तनों की आड़ में निर्भरता की ओर
फिर सब भूल ही जाते हैं एक सूत्र
गर्भ में वो पेड़ नहीं बस बीज थे
बीज जो पेड़ बनने के काबिल था
आज जड़ों टहनियों का फैलाव है
हर शाख पर नये बीज का प्रमाण है
छोड़ जड़ता लहराओ एक बार
गर्भ का रास्ता आज भी खुला है।