एक और बुद्ध
एक और बुद्ध
क्या तुमने अपनी आँखों से देखा था
अपनी पहली मूरत को बनते हुए
या तब भी तुम्हारी आँखें बंद थी
तुम देखना नहीं चाहते थे यह दुनिया
या शिल्पकार की कल्पना में
ज़माना शर्मिंदा था अपने नंगेपन पर ,
तब से तुम्हें वैसे ही बैठे देखा है स्थिर
पेड़ की तरह अपने अंदर बीज खोजते,
क्या तुम अब भी उस पल से बंधे बैठे हो
या उठ कर चल दिए थे अगले ही पल ,
कहते हैं तुम्हारे भीतर सब शांत हो गया था
किसी तालाब के तल जैसा था चित
सब सवाल पत्तों की तरह गिर गए थे
फिर क्यू आज भी तुम्हें ढूँढते फिरते हैं ?
माँगते हैं जवाब इन गूँगी मूर्तियों से,
मैंने शिल्पकार से पूछा अपना सवाल
क्या तुम्हारी आँखें भी तालाब सी थी
वो हैरान परेशान सा मुझे देखने लगा
तुम्हें कला और अध्यात्म की समझ नहीं
अगले ही पल उसका चेहरा शांत हो गया
और वो फिर से स्थिर हो कर बैठ गया
बिलकुल तुम्हारी मूरत की तरह ।