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Rajendra Kumar Pathik

Drama

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Rajendra Kumar Pathik

Drama

पावस

पावस

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पावस की घोर-घटा देख सब नाच उठे,

अधरों पर बैठी मुस्कान अब जागी है।

तपिश भरी गर्मी से अचला भी शांत हुई,

पीउ-पीउ उपवन से केकी-रव आती है।।


पीत परिधान पहने दर्दुरों के ध्वनि गूंजे,

झिल्लियों की झन-झन रैन सारी गूंजी है।

सारे खद्योत भी अवलोक रहे वर्षा जल,

कहां भरे ताल और कहां धरा सूखी है।।

पर्वतों ने हरीतिमा का नव्य-वस्त्र धारकर,

बैठे हैं मुदित मन मानो भाग्य जागी है।।


लुका-छिपी खेल शशि खेल रहा बादलों से,

कभी स्वच्छ पल्लवों में अपना ही रूप लखे।

तटिनी भी तट तोड़ नगरों में घूम रही,

नाले निज रूप का भयंकर नाद कर उठे।

बाढ़ की विभीषिका का ज्वार-जाल ऐसे उठा।

फेन युक्त जलधि में ऊर्मि जैसे भागी है।।


सांवले कलेवर पर दुग्ध-पंक्ति बगुलों की,

रजत-समान नभ मंजुल हार धारी हो।

जब काली घटा घिरि-घिरि के कहर ढावे,

दिवस में मानो जैसे आ गई विभावरी हो।।

ऐसे में किसान अपने बैलों संग हल लिए,

लीन है रोपाई में वे चित्त अनुरागी है।।


बेला व शेफाली गंधराज जैसे सुमनों ने,

घनी मीठी गंध अब वायु में बिखेरा है।

जंतु तो प्रसन्न तन-मन है उमंग पूर्ण,

पावस की ऋतु से ही जीवन का सवेरा है।।

ऐसी बारिश बार-बार आवे 'पथिक' जीवन में,

खुशी बांटे हर-पल लगन जिसमें लागी है।।


पावस की घोर घटा देख सब नाच उठे,

अधरों पर बैठी मुस्कान अब जागी है।


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