बगराया-बसंत
बगराया-बसंत
जंगल टेसू से लाल भये अब, कोयल कूक है मन को लुभायो।
बागन में बगराया है बौर, नहीं कौनौ ठौर अलि मडरायो।।
तीसी की गंध मधुर मकरंद, सुवासित हैं पाकर दसों दिशाएं।
पीत है अम्बर स्वयंवर कारन, बैठी धरा मन में हुलसाए।।
है गदराया गोधूम का खेत, मटर नीले ध्वज को उठाए खड़ा है।
फैली महक महुए की है खुशबू, घमंड अब ठंड का टूट पड़ा है।।
अंबुज स्वच्छ तड़ाग में विकसे हैं, कोमल पल्लव को यूँ वगराये।
कुसुमाकर के स्वागत में पुष्प, बनाये हैं आसन अति हर्षाये।।
पंथहि पंथ में पात विछ्यों हैं, बयार बहार से मन इतरायो।
हे री सखी अब जान्यो मैं ऐसे, कि मीत 'पथिक' ऋतुराज है आयो।।