वैश्विक-गर्मी
वैश्विक-गर्मी
गर्मी भीषण अपार।
भू जलती जस अंगार।।
कुम्हार का हो लगा आँव।
जबहि धरा धरे पाँव।।
रेल-पथ दहक रहे।
अग्नि बन लपक रहे।।
गौर-वर्ण कहत काँप।
बना सूर्य प्रचंड ताप।।
पहाड़ का पाषाण दिल।
पावक लगे स्वर्ण मिल।।
दहका इतना विशाल।
खौल रहा सरित ताल।।
निविड़ में शरण लिये।
मन में दृढ़ प्रण किये।।
नीड़ बाहर पग नहीं।
उड़ते कोई खग नहीं।।
नाली नम में बैठ श्वान।
हाफ रहा रसना तान।।
दुहर गई नदी कटि।
मंथर हुई जल गति।।
सिकुड़े सिकता कपोल।
मुख में न लहर बोल।।
प्रभंजन का तीव्र भाव।
चिनगीं बन लगे घाव।।
सीकर से भरे भाल।
उमस से जन बेहाल।।
गर्मी का नग्न-नर्तन।
वृक्ष का ना हो कर्तन।।
विकृति प्रकृति जो होवे।
मानव सभ्यता को खोवे।।
वैश्विक गरमी प्रभाव।
उसी का चले पेंच दॉंव।।