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Rajendra Kumar Pathik

Abstract

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Rajendra Kumar Pathik

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परिमल-हवा

परिमल-हवा

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सुबह की मंद हवा,

मेरे वातायन से आकर,

जब कपोलों को थपथपाती है।

तब स्वप्न-संसार को त्यागकर,

अलसायी आंख लिए उठता हूं।

खुली बांहें आलिंगन को तत्पर,

मंद मुस्कान लिए, 

जीवन गतिशील है,

बताने आती है हवा,

तब मैं चैतन्य हो उठता हूं।।


पीली सरसों के परागों से,

रंगीन तितलियों पर बैठकर,

लिए साथ में,

मटर तीसी की भीनी सुगंध।

आम्र-निकुंजों, लता-ग़ुल्मों,

सरों में स्थित कमलमुख का,

चुंबन लिए, 

शेफाली को सहलाते,

ले आती सुगंध।।


फूलों की घाटी,

के सुवासित मकरंद, 

रंग-बिरंगी जड़ी-बूटियों की,

स्वास्थ्यवर्धक उमंग, 

निर्झरों के जल-कणों, 

से भींगते नहाते,

घाटी-दर-घाटी से,

हंसते बतियाते।

सागर से मेघों को,

हाँफते।

तृणों पर टिकी,

ओस के अहं,

को मिटाते,

तब मेरे वातायन से,

आती है परिमल-हवा।।


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