तन निर्मित है माटी से और मन...
तन निर्मित है माटी से और मन...
छाई घटा और बरसे बादल,
घटा न हृदय का अहंकार !
ऐसा जीना क्या जीना हुआ,
जब न पाए उच्च संस्कार !
नाम धाम तजकर ईश्वर का,
भोग विलास को है अपनाया !
निज देह पर अभिमान किया,
बुजुर्गों का ना सम्मान किया !
कंचन तन की माटी को पूजा,
और निर्मम बन सुख भोगा है !
दूर रहा सदा भगवत भजन से,
परलोक के लिए क्या जोगा है !
विषय वस्तु के भोग विलास से,
जगत ये सारा बौराया जाता है,
निज स्वार्थ सोगारथ व्यापार से,
सत्य का आचरण लुटाता जता है !