ऐसा ग़हन तिमिर है कि...
ऐसा ग़हन तिमिर है कि...
अब अपने ही आसपास ,
उजास कि किरण कैसे फैलाएं,
स्वार्थ का गहन तिमिर है कि,
ज़रा सा तो रौशनी मिल जाए।
पहेली अब इस जीवन की ,
कैसे हम ये सुलझाएं।
अपने मन के अंधकार को ,
कैसे अब हम मिटाएं।।
गलत, सही को मेरा मन,
अब भली-भांति जानता है।
ना कभी लालच में फंसकर,
गलत को सही मानता है।।
जो भी संभव हो सकते है,
मन ऐसा पथ अपनाए।
कार्य पूर्ण की आकांक्षा
में अंधकार में डूबा जाए।।
छोड़ बुराई की जंजीरें,
अब हम कैसे खुद बच पाएं।
अपने मन के अंधकार को,
कैसे अब हम मिटाएं।।
कैसे मैं खुद बच पाऊं,
पथ मुझको अब बतलाओ।
मेरे ईश्वर मेरे मन को
नई राह तो तुम दिखलाओ।।
लक्ष्य प्राप्ति की आकांक्षा ने,
सच का पथ ठुकराया।
तभी हमारे निर्मल मन में,
अंधकार का दानव छाया।।
अंधकार के इस दानव को,
कैसे अब मार भगाये।
अपने मन के अंधकार को,
कैसे अब हम मिटाएं।।