बात बिगड़ ही जाती है
बात बिगड़ ही जाती है
जितना भी चाहूँ कि
बनी बनाई बात न बिगड़े
तेज तर्रार ज़ुबान न फिसले
बेकाबू जज़्बात न मचले
मगर क्या करूं आदत से मजबूर हूँ
बात बिगड़ ही जाती है
मेरे लिबास की सादगी देखकर
लोग बनाकर रखते हैं मुझसे दूरियाँ
मेरी हैसियत से उतना ही रखते हैं नाता
जितना आसमान रखता है धरती से
वो दौर भी देखा है इन आंखों ने
जब भरी जेब की खन खन से
बेवजह खैरियत पूछ लिया करते थे
शायद अपनी ज़रूरत की नब्ज पहचानते हैं लोग
इंसान की फ़ितरत भी क्या फ़ितरत है
मुफलिसी की परछाई से कतराते हैं
औकात को मतलब के तराजू में तोलकर
अपनी ज़रूरत का मोल लगाते हैं लोग
सादगी मेरी मजबूरी नहीं है
जीने का अपना निराला अंदाज़ है
मगर नासमझ लोग उसे भी
लाचारी के पैमाने से नापते हैं
जो फासले बढ़ रहे हैं इंसानी रिश्तों में
सोचता हूँ कैसे कम होंगे
जब यक़ीन का धागा ही टूट गया हो
फिर क्या मायने रह जाते हैं
क्या तुमने कहा और क्या मैंने कहा में।
