महामारी का प्रकोप
महामारी का प्रकोप
किताबो में पढ़ा था,बुजुर्गो से सुना था
महामारी का दौर प्रकोप का कहर ढाती है,
कड़वे यथार्थ के अंश और दंश में अंतर है,
अब ये बात बखूबी समझ में आती है।
अखबारों में मौत के आंकड़ों को पढ़कर दुःख जताना,
और पड़ोस में अर्थी को कंधा लगाने में सिहर जाना,
समाचारों की चर्चा में और आत्मजनो की व्यथा में अंतर है
अब ये बात बखूबी समझ में आती है।
दवा इलाज के बिना किसी का मर जाना
और दवा इलाज के बावजूद भी किसी का मर जाना,
जान बचाने में पैसा बहाने और पैसा खंगालने में अंतर है,
अब ये बात बखूबी समझ में आती हैं।
घर उजड़ रहे है,मांग का सिंदूर मिट रहा है,
अनाथ बच्चे बिलख रहे है,पिता बेटे को मुखाग्नि दे रहा है,
प्रकृति की मार और प्रकृति के दुलार में अंतर है
अब ये बात बखूबी समझ में आती हैं।
मानो मानवता का दुश्मन कोई हैवान छुट्टा घूम रहा है,
खुली हवाओ में जहर खुलेआम घोल रहा है,
आजादी के बसर और खौफनाक डर के शहर में अंतर है,
अब ये बात बखूबी समझ में आती है।
सत्ता के लालच में चुनावी डंके बज रहे है,
राजनीतिक वायदो में रोज नए नए नारे सज रहे है,
जनता की भूख बदहाली और नेता के वोट अपील में अंतर है,
अब ये बात बखूबी समझ में आती है।
अंधेरा गहरा हो तो भी रोशनी से छंट जायेगा,
चमन जो उजड़ा है एक दिन फिर बस जाएगा,
औचक चोट में और पुरानी टीस में अंतर है,
अब ये बात बखूबी समझ में आती है।
