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Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy Inspirational

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy Inspirational

"घर-बुजुर्ग"

"घर-बुजुर्ग"

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बड़े-बुजुर्गों के साथ ये घर भी हुए बुजुर्ग

इंतजार में दरवाजे, खिड़कियां हुई बेसुध

अब तो लौट के आजा घर छोड़ गये पुत्र

आंगन गलियां सबकी रंगत उड़ी है, बहुत


घर की ईंटें, याद दिलाये बीते लम्हे अद्भुत

जिनमें गुजरा था, तेरा मासूम बचपन सुत

निकल आये, उनसे भी अब बेल-बूटे खूब

कितना रुलाया, कितना दिया, इन्हें दुःख


अब बन गई हर कमरे की दीवारें भी बुत

बड़े-बुजुर्गों के साथ, ये घर भी हुए बुजुर्ग

बिना लोगों के ये घर हुआ है, अब बेसुध

बिना परिवार के हर घर है, मुर्दे जैसा मुंड


पहले मकान कच्चे थे, पर मन थे, मजबूत

आज हवा ऐसी चल रही है, घर रहे है, टूट

लोग बंगल

े बना रहे, पर न है, उनमें सुकून

खुशियां तब होती, जब हो, परिवार मौजूद


आज मकान पक्के है, मन में है, छुआछूत

शायद इस कारण मकान हुए, अकेले भूत

क्योंकि बिना बुजुर्गों के सब घर है, फिजूल

चाहे उसमें स्वर्ण ईंटें ही क्यों न हो मौजूद


घर ईंट, पत्थर, सीमेंट से न बनता, रे सुत

इसमें मिला होता, सबका भरोसा, साबुत

घर बूढ़ा तब होता, जब छोड़े, अपना खून

निकल आता घर के अक्षु, उसे होता दुःख


घर में सदा ही रहेगी नवयौवना जैसी रुत

गर साखी सब सदस्य प्रेम से रहे, एकजुट

घर भी बूढ़ा न होगा, बुजुर्ग भी बूढ़े न होंगे,

सब एकसाथ संयुक्त रहे, ज्यों मधुमक्खी झुंड।



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