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Dr Abhigyat

Drama Tragedy

2.8  

Dr Abhigyat

Drama Tragedy

शब्दों की थरथराहट

शब्दों की थरथराहट

3 mins
303


पुस्तक मेले में आ तो गया हूँ

लेकिन तन्हा हूँ

और एकाएक पीछे लग गये हैं कुछ प्रश्न

जैसे पीछे लग जाते हैं याचक।


दक्षिणेश्वर धाम के पास...

धाम में पहुंचने से पहले

कुछ न दो तो लगता है नोच डालेंगे

और एक को दे दिया तो यह ख़तरा है

पीछे पड़ जायेगा झुण्ड का झुण्ड।


आपकी सदाशयता

और संवेदनशीलता को

पलीता लगाते हुए

और मन में यह सवाल उठाते हुए,


यदि इस दर पर जाने से

दूर हो जाने हैं आपके दुख

तो सबसे पहले उनके होते

जो यहाँ पड़े रहते हैं

हम जैसे याचकों के आगे हाथ पसारे।


अजब है कि मेले में बढ़ा हुआ

महसूस होता है अपना एकाकीपन

यदि न भी टंगा हो कंधे पर बैग या झोला

तो लगता है टंगा हुआ है

ज़रूर कुछ न कुछ अदृश्य ही सही।


थोड़ी देर में पीठ पर भी लद जाती है

एकाकीपन की बड़ी

और भारी होती हुई काया

हालांकि अकेला होने के कारण

यह आज़ादी होती है कि जहाँ चाहे

खड़े रहे कितनी भी देर।


देखें अपनी मनपसंद कोई क़िताब

किसी बुकस्टॉल में

किसी अनजान लेखक का परिचय पढ़ें

किसी का उलट-पुलट लें ज़िल्द

ख़रीद लें कोई ऐसी वैसी क़िताब

जिसका शायद फिर कभी पढ़ने का

जी न चाहे।


ले लें किसी ग़ुजर चुके लेखक के

कटआउट के साथ सेल्फी

सुनते रहें देर तक बाउल गीत

या किसी स्टॉल में सुनें

चार-छह लोगों के बीच चल रहे किसी गहन गंभीर मुद्दे

या सांस्कृतिक संकट पर विमर्श।


पिछली बार की तरह मैंने

कम ही लीं क़िताबें

ख़रीदीं इक्का-दुक्का पत्रिकाएं

जो न तो दुर्लभ थीं न विलक्षण

और ना ही अप्राप्य।


यह एक बोझ ही था..

जो अकेलेपन के बोझ से बेहतर था

काम आ सकता था यह समझने-समझाने में

कि मैं क्यों आया हूँ पुस्तक मेले में।


जबकि वह...जो मेरा कथित

हिन्दीभाषी समुदाय या समाज है

वह इसमें सिरे से अनुपस्थित है

वह अभी कुंभ में धो रहा होगा

अपनी आत्मा पर लगे अदृश्य असंख्य दाग़,


या थक कर सुस्ता रहा होगा

गंगा सागर मेले में अपने बजट का

एक हिस्सा ख़र्चने की सार्थकता पर

मोहित व संतुष्ट हो।


यूँ भी अब क़िताबें

इस शर्त के साथ घर में

लायी देने जाती हैं कि उनका अम्बार लगाकर

न बढ़ाया जाये घर का कचरा।


इंटरनेट पर पर्याप्त सामग्री है पढ़ने को

फ़ालतू का समय न ख़र्च किया जाये

यह सब पढ़ने-वढ़ने में

सो मैंने एहतियातन मेले में नहीं ली,


तमाम गुज़ारिशों के बावज़ूद

कोई लिफ़लेट नहीं लिया

नये साल का कलेण्डर

जिस पर ज़रूर होगा

किसी कंपनी के उत्पाद का प्रचार

नहीं ली प्रचार के लिए बांटी जा रही

बाइबिल।


लघु-पत्रिकाओं की मेज़ों के जमघट से गुज़रा ज़रूर

लेकिन नहीं पलटी कोई पत्रिका

क्योंकि फिर दूसरी तीसरी चौथी पत्रिका

देखने का आक्रामक आग्रह

लगने लगता है दुराग्रह,


जैसे गांव में लिबास से

चिपक जाती है वनस्पति लपटा

बिना आग्रह के शायद

अधिक देखी जाती हैं पत्रिकाएँ

अधिक ख़रीदी जातीं हैं क़िताबें,


हम नहीं चाहते कि

किसी अन्य के चाहने पर हम ख़रीदें ...कुछ भी

भले वह हमें पसंद ही क्यों न हो

हम चाहते हैं कि हमें यह आश्वस्ति मिले

कि कोई भी वस्तु इसलिए हमारे पास है

क्योंकि हमने चाहा है कि वह हमारे पास हो।


मैंने उधेड़बुन में पुस्तक मेले में जाने से ऐन पहले

अपने फेसबुक पर डाल दी थी पोस्ट

कि मेले में कोई मित्र हो तो सम्पर्क करे

ताकि मिल बैठें दीवाने दो

तो आया दिल्ली से एक जवाब,


कोलकाता बुकफेयर में

अमुक स्टॉल पर है मेरा नया उपन्यास

हालांकि मैंने यह जवाब तब देखा

जब बुकफेयर बंद हो चुका था,


और मैं लौट रहा था

एकाएक मिल गये अपने रंगकर्मी मित्र

जितेन्द्र सिंह के साथ संक्षिप्त अड्डा मारने के बाद

तो आख़िरकार मुझे मिल ही गया था अपने प्रश्नों का जवाब

पुस्तक मेले में आने की सार्थकता का,


मेरा यहाँ आना आश्वासन था

दुनिया के तमाम लेखकों के लिए

कि मैं हूँ यहाँ उनके लिखे को देखने...

शब्दों की थरथराहट को महसूस करने के लिए,


और उनकी सुगंध से निहाल होने

मैं शब्दों की दुनिया में आया हूँ

मनुष्य जाति की ओर से

उनका शुक्रिया अदा करने।।


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