STORYMIRROR

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Horror Tragedy

4  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Horror Tragedy

"भूत'

"भूत'

1 min
277


देखकर आज के इंसानों के करतब

बेचारे भूत भी हुए, आजकल गायब

पहले आ जाते थे, भूत बीड़ी मांगने

भूत इंसानों से बीड़ी नही मांगते, अब


इंसानों में आ गया, बेहिसाब, लालच

इंसानों को देखकर, भूत भाग रहे, सब

इंसानों की बढ़ गई है, जनसंख्या, नभ 

में भूत कहां जाऊं?तू बता खुदा, अब


जल, थल, नभ सर्वत्र इंसानी करतब

लोभ, लालच में भूल चुका रिश्ते, सब

में कैसे दोहरा दू, फिर वही पुराने कर्म

जिस कारण भटक रहा, में भूत बनकर


आधुनिक इंसान मुझसे ज्यादा, बेअदब

खा गये जमीं को जिसे, मां कहते थे, सब

आज के इंसानों को मुझसे न लगता डर

उल्टा इंसानों से डरकर, में खुद हुआ बेघर


में भूत हूं, भूत ही रहूंगा, पर सुनों इंसानों

तुम क्यों बनते हो?, जिंदा भूतों के कलरव

हे!इंसानों थोड़ा रहम करो, तुम मुझ पर

बख्स दो, लोगों को डराकर, छीनना हक


नही तो मरकर तुम भूत नही बनोगे, सच

तुम बनोगे महाभूत, मारेंगे यमदूत, सपासक

भूतों का नाम खराब कर रहे, तुम इंसान सब

गलत तुम करते, गाली सुनते भूत बेमतलब


कहते तुम, यह इंसान नही, भूत है, मां कसम

जबकि हम तो है, शिव जी के भक्त, अनुपम

उन्होंने अपना गण बनाकर दी, हमें इज्जत

सुधर जाओ इंसानों, झूठ बोलना कर दो, बंद


तुम चलना शुरू कर दो, सत्य पथ पर, अब

न तो एकदिन, भटकोगे तुम अंधेरे में बेशक

वैसे भी सत्य राही को, भूत शूल देते है, कब?

भूत हवा है, तुम कर्म कर सकते हो, वर्षो तक







Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract