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salonilal srivastava

Abstract

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salonilal srivastava

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कृष्ण तुम पर क्या लिखूं

कृष्ण तुम पर क्या लिखूं

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कृष्ण तुम पर क्या लिखूँ ! कितना लिखूँ !

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

प्रेम का सागर लिखूँ ! या चेतना का चिंतन लिखूँ !

प्रीति की गागर लिखूँ या आत्मा का मंथन लिखूँ !

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

ज्ञानियों का गुंथन लिखूँ या गाय का ग्वाला लिखूँ !

कंस के लिए विष लिखूँ या भक्तों का अमृत प्याला लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

पृथ्वी का मानव लिखूँ या निर्लिप्त योगेश्वर लिखूँ।

चेतना चिंतक लिखूँ या संतृप्त देवेश्वर लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

जेल में जन्मा लिखूँ या गोकुल का पलना लिखूँ।

देवकी की गोदी लिखूँ या यशोदा का पलना लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

गोपियों का प्रिय लिखूँ या राधा का प्रियतम लिखूँ।

रुक्मणि का श्री लिखूँ या सत्यभामा का श्रीतम लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

देवकी का नंदन लिखूँ या यशोदा का लाल लिखूँ।

वासुदेव का तनय लिखूँ या नंद का गोपाल लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

नदियों-सा बहता लिखूँ या सागर-सा गहरा लिखूँ।

झरनों-सा झरता लिखूँ या प्रकृति का चेहरा लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

आत्मतत्व चिंतन लिखूँ या प्राणेश्वर परमात्मा लिखूँ।

स्थिर चित्त योगी लिखूँ या यताति सर्वात्मा लिखूँ।

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ !

 

कृष्ण तुम पर क्या लिखूँ ! कितना लिखूँ !

रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूँ।


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