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DIVYANSHI TRIGUNA

Abstract

4  

DIVYANSHI TRIGUNA

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ओ कन्हैया..

ओ कन्हैया..

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तेरी नगरी को छोड़ मैं कन्हैया, दूजी नगरी में रहने आई हूँ

तुझे याद में बसा कर अपनी, तुझसे दूर चली आई हूँ

वैसे तो ये नगरी सारी, तेरी हैं बनवारी

तुझे छोड़कर मैं कहाँ जाऊँगी, सब जगह कृष्ण मुरारी

छोड़ चली हूँ उन गलियों को, जहाँ था तेरा बसेरा

छोड़ सकी ना तुझको मोहन, इस मन डेरा तेरा

शीत ऋतु ये चल रही हैं, बहती हवा तुम्हारी

पग-पग छूते हो तुम मुझको, ओ मेरे गिरधारी

रैन-बसेरा ढूंढ रहा मन, तेरी ही नगरी में

तुझ सा अपना कोई नहीं हैं, इस दुनिया-दारी में

तेरी नगरी ना भूली कन्हैया, ना तुझको भुला मैं पाऊँगी

तुझे याद में बसाकर अपनी, तुझसे दूर चली जाऊँगी

जैसा ये विश्वास हैं, इस मन जैसी आस हैं

मिलन नहीं हैं कोई हमारा, प्रेम-रस की प्यास हैं

अगर हुआ मिलना कभी तो, मोहन तुम चले आना

राधा बनाकर, रास चलाकर, हमें यूँ ना छोड़ जाना

जब-जब बजती तेरी मुरलियाँ, मेरा मन मोह लेती

कान्हा तेरे आने का वो, मुझको संकेत देती

सब कुछ तुझको अर्पित करके, बाकी कुछ ना बचा हैं

मैं भी नहीं हूँ, मन भी नहीं हैं, बस अब हरी रहा हैं

ये जीवन तो जीना हैं कन्हैया, इसे यूँ ही जीती चली जाऊँगी

चाहें कुछ ना रहे मुझ संग यूँ, इस प्रीति को हर निभाऊँगी 


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