नदी
नदी
रंगहीन गंधहीन है
बहती रजत धार
एक पंथ में जल रोदन
एक पंथ चिर उन्मन
धोती तल कि मृदु गाल
बह रही नदी जो मेरे पास थी
और उसके पास थे हरे हरे घासों का ठांव
वह स्तब्ध सी बह रही मै शांत सा सुन रहा
कल कल छल छल छलल छलल
नदी में बिजली सी दौड़ रही
फुदकती गिलहरी
धूप भी पड़ती थी आधे में आधे में छांव
पेड़ था जिसकी जुबान उसके लताये थी
बीच लहराती तरंग जो भाग कर किनारे आते
बीच ठहरे फेन जो बुलबुले बन जाते
बीच में ही शंखों का प्रदेश जहां बसे हैं
हजार टीलों का गांव गांवों में धुये की जगह
उठती है केवल रंगहीन गरल
उन गांवों की बस्ती में दीवारों में चुनायी जाती है
देश सबसे बड़ी लोक तंत्र की दुर्लभ ग्रंथिया
उनकी रास्तो में ठहरी है चट्टाने तरल
जहां फिसलती ही छोटे वर्ग की स्त्री या
और उनकी चमडियो से बनायी जाती है
कामुकता कि तरल प्यास जिसे
न जाने क्यों हर कोई पीना चाहता है।
मुझे आश्चर्य है की वही स्त्री या हमारे
तन को ढकती है।हम
एक कठोर और बदहवास हालत उठाते है
जो बाद में ऐसी दल दल में फासता है जिसकी जडे
कठोर है और बालू की न होकर बेड़ियों से बनी होती है
एक स्वर्ग के किनारे बहती नदी तो दूसरो
दुष्कर्मो की कोठरी
महज फसला केवल एक सोच का है।
जिसकी क़िमत मुझे पता नहीं
लगभग अच्छी बुरी सोच है।
उस नदी में बहुत सी संवेदनाये दफ्न है
इष्र्या कि प्रेम की ईडा कि स्नेह कि
जिसको संवेदित करता है उसमें बहती नदी का मंझी
जीवन कि नाव चलाता डगमगाता गिरता तैरता
कभी कभी जल कि सतह पर दौडता
और तल पर फिसलता क्षितिज पर उड़ता
मन में कुढ़ता तन से फूलता
ज्यो ही नदी के पास जाता है सब कुछ भूलता
पाता है शांत सा तरल चुप का संदेश
बहता जल अपनी आवाज से उसे आवाज देता
वो बोलने लगता बेतार की झंकार उठती है
बिना मन के चैन बिन ह्रदय के मौन
रात में एक नदी देती है रौशनी उसकी चमक
इंसानों को सूरज बनाता है।
और उससे दूर खड़े चांद को
पहरूह बनाता है
उसके तारों को चार-चांद लगाने के लिए
अपनी रोशनी बांटता है ताकि
पृथ्वी पर संसार को पता चले की प्रकृति भी
आदेश देती अपनी आप बनी घट्यो को जो
आप प्रदत्त है और प्रकृति कहीं जाती है
वो जुड़ी है एक दूसरे से
पेड़ों में तन बसता है नदियों मे मन
पेड़ों कि शिराये है तने
नदियों कि धराये है तने
पेड़ पक्षियों का घर है
और नदी बहता जल।
