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KARAN KOVIND

Fantasy Inspirational Others

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KARAN KOVIND

Fantasy Inspirational Others

बोधिसत्व भाग २

बोधिसत्व भाग २

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प्रातः काल माया स्वप्न में खोयी

प्रभा हुयी पर ठीक से न सोयी

कुछ अदृश्य विवेचन भरमायी

छहदंती स्वेत हाथियों आयी

ब्रम्ह सी रजत पुष्प सा अनुराग

ज्वाला सी बिजली प्रथम आग

माया की कोख अंतर में समाया

कम्प कम्प कम्पित भव काया

ज्वाला मुखी उजागर गुंजार

पत्थरों कि ढाल फूटे अंगार

आकाश में विपुल तड़ित तांडव

अहे पूर्णोदय सूर्य प्रभा न हुआ

प्रकाश में दिनकर का नर्तन

छाने लगी मेघ छाया विवर्तन

धूप में भी करुणा का आभास

लहर नीर में उतकंण्ठा उच्छास

झंझाये चलती पैर पसारती

कुंजो की नित दशा निखारती

क्या हो रहा यह कैसा उद्घोष

आज होगा जग में कुछ विशेष

नर्म कोमल खिलती कलियां

बाग में सिहर उठी वल्लरियां

धूप को सेंकती

चारों दिशायें

वाह झकझोरती तरु लताएं

पत्थर भी चूर होकर नीर होते

प्रेम से मधुकर मधुधीर खोते

क्या कभी ऐसा भी होता है

पृथ्वी भी किस लिये न सोता है

प्रतिपल आह्वान संदेश देता

प्रतिपल पहर मरु सेक देता

कौन जिसका हुआ सर्वोदय

कौन है जो सृष्टि धर्मोभ्युदय

उसकी प्रभा सकल सृष्टि दीपित

धर्म कि आभा प्रज्वलित

वह बिन शाश्वत धर्म के निर्मूल

वह जन्म ले रहा वृक्षधर कूल

फूलों कि सेजों ने बिखेरा दूकूल

पत्तो ने बनाया धरा मुकुल

पलास कि ठंण्डी शीतल छांव

एक बुध्दगाथा कि सर्वोउद्भव

अलग ही रोष था कल्लार सी

माया कोख से जन्मा धर्म रिषी

उस एक विपुलता मानव गाथा

रोज गाकर पूरी न हो कथा


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