घटाएँ घिर के आयी है ..
घटाएँ घिर के आयी है ..
घटाएँ घिर के आयी है, व्यथाएं बनके बरसेगी
उजाला खो गया है अब धरा किरणो को तरसेगी
आंगन की तुलसी सूख गई, सूनी दहलीजे मंदिर की
प्रतिमाए अपनी ईश्वर ने स्वयं ही आकर खण्डित की।
मस्तक पर चंदन आकर जब वंदन तक ना कर पाया
अपनो को गले लगाकर जब बंधन तक ना बंध पाया
मरूथल का सैतक आँखो में है
हरियाली नजरों में अखरेगी ...
घटाएँ घिर के आयी है, व्यथाएं बनके बरसेगी।
उजाला खो गया है अब धरा किरणो को तरसेगी ...
नदिया का नीर भी कल कल की कोई ध्वनि नही देता
हिमशिखर भी चिल्लाने की अब प्रतिध्वनि नहीं देता
घट खाली करने पर भी जब गला सूखता जाता है
दरवाजे पर आकर जब साधु भूखा जाता है
वरदान भी सब अभिशाप बने
तो नियती कहाँ से संवरेगी ..
घटाएँ घिर के आयी है, व्यथाएं बनके बरसेगी..
उजाला खो गया है अब धरा किरणो को तरसेगी ..
जब बारिश होने लग जाए आकाश में उडते बादल से
जब ईश्वर आरोप लगा दे, खुद अपने ही साधक पे
जब जेठ दुपहरी में भी धरती द्रवित होने लग जाए
माँए भी नवजात शिशु से घ्रणित होने लग जाए
परमसत्ता भी शक्तिविहीन हो
तो चेतना कहाँ से मचलेगी ...
घटाएँ घिर के आयी है, व्यथाएं बनके बरसेगी....
लिखते लिखते गीत जब व्याकरण रूठने लग जाए
पंक्ति गढने से पहले ही अलंकार छूटने लग जाए
धरती की उपमा का भी आकाश अर्थ बन जाता है
दोहा गढने की कोशिश में गीतिका छंद बन जाता है
तब लाख "श्याम "अनुप्रास लगाये
पंक्ति कहाँ से संवरेगी ..
घटाएँ घिर के आयी है, व्यथाएं बनके बरसेगी
उजाला खो गया है अब धरा किरणो को तरसेगी।
