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Lisha Chand

Abstract

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Lisha Chand

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लाल रंग

लाल रंग

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मैं बेरंग हूँ, मेरा कोई रंग नहीं,

मैंने लपेटे है कुछ सफ़ेद थान

और थान में लिपटी मेरी गरिमा।

मुझे बताया गया कि लिहाज करो

समाज का और त्याग करो साज का।

समाज जिसने पहनाया था मुझे लाल रंग,

लाल चादर , श्रृंगार और कहा

"सुनो मर्यादा मे रहना ये तुम्हारा दूसरा पिंजरा"।

पिंजरा ?


नहीं, मैं पंछी नहीं, मुझे पिंजरे मे मत बांधो।

मेरी आत्मा अटकती है, घुटन महसूस होता है।

तुम एक छत दे सको तो कहना,

मुझे घर सजाना अच्छा लगता है।

लडकियां पंछियों की तरह होती हैं।


उड़ना चाहती है हवाओं मे बहुत दूर,

तुमने मान लिया मैं पंछी हूँ,

तुम्हें पंछी से प्रेम था ना?

या शायद समाज से।

मेरे पंख काट दिए गए, मेरा शरीर लहुलुहान था।

समाज ने फिर कहा "सुनो मर्यादा मे रहना

अब बस यही तुम्हारा आखिरी पिंजरा"।


मैं स्तब्ध थी, मैंने नहीं कहा कि मुझे घर चाहिए।

घर,आज घर में सन्नाटा है, अब यह पिंजरा नहीं।

मैंने बरसो पहले खुद को पंछी मान लिया है।

पंछी जिसे सब प्रेम करते है, और मैं ?


मुझे पिंजरे से प्रेम है, सुनो शायद घर से।

आज तुम घर पर नहीं थे, था तुम्हारा शरीर।

तुम्हारे शरीर से आत्मा जा चुकी थी

और मेरे शरीर से लाल रंग और चुड़ियाँ।

मैंने कहा मुझे लाल रंग पसंद है, समाज ने कहा

मर्यादा मे रहो और सफ़ेद धरो।

समाज को मुझसे प्रेम नहीं, और पक्षिओं से भी नहीं।


पर मैंने कह दिया मैं पंछी हूँ , उड़ना चाहती हूँ

मैं ही मर्यादा हूँ और मुझे लाल रंग पसंद है।


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