स्वप्न यात्रा
स्वप्न यात्रा
थी आंख लगी, अर्द्ध मृत बनी।
बिस्तर, शय्या ने स्वांग रचा।
कुछ रंग खिले, फिर ओझल से।
उड़ने को जैसे पंख लगा।
कुछ तीर चले, फिर कटी पतंग
और मैं डोरी सी सिमट गई।
किसी माया ने पुकार दिया
और मैं हिरणी सी खड़ी हुई।
कुछ झुंड मिलें, मैं दौड़ पड़ी,
अदृश्य हुए सब, सहम गई।
घने जंगल से मरूस्थल के
दलदल में थी फंसी पड़ी।
थे सर्प गिरे, सिर के उपर।
दलदल खाई में तब्दील हुआ।
सहसा मानो सर्प विष से,
मूर्छित ये शरीर हुआ।
तुफान हुआ, था धुल भरा।
मैं पेड़ बनी थी अडिग रही।
कुल्हाड़ी से थे प्राण गए।
मैं मोर वेश ले खड़ी हुई।
थे पंख नए, मैं नाच रही।
अंबर को थी मैं ताक रही।
अश्रू की जो बारिश बरसीं।
मैं मोर वेश को खो तरसी।
फिर नए रूप अवतार में,
इस स्वप्न भरे संसार में।
नई ओज, नई तलाश में,
मैं भाग रही थी आस में।
था खेलों का जो ये प्रक्रम।
न आदि था, न ही कोई अंत।
था भूल-भुलैया जालतंत्र।
आ फंस चुकी,कर आंख बंद।
सर पे जैसे कोई साया था।
हाथों से मुझे सहलाया था।
मधुर सी कोई वाणी थी।
आवाज़ लगी पुरानी थी।
बारिश की थोड़ी अनुभूति हुई।
आकाशवाणी जो होती रही।
कहा स्वप्न यात्रा का अंत हुआ।
संघर्ष नहीं अभी खत्म हुआ।
