कितनी बार ?
कितनी बार ?
कितनी बार ?
वही पुरानी बात वही हालात कहूँ मैं,
कितनी बार ?
कितनी बार वही रोना धोना,
पास भी हो के तेरा पास नहीं होना।
कितनी बार ?
कितनी बार वही तेरी मेरी तकरार को,
मेरे लफ़्ज़ों में बकता जाऊँ,
कितनी बार ?
कितनी बार तेरी मेरी बातों की चिता की,
राख को माथे मलता जाऊँ।
कितनी बार ?
कितनी बार तेरे हाथों को अपने मुँह बोले यार,
के हाथों में देख नफ़रत की आग में जलता जाऊँ,
कितनी बार ?
कितनी बार तेरे नूरानी चेहरे पे,
चिंता की लकीरों को मैं मिटाता जाऊँ।
कितनी बार ?
कितनी बार मदहोश फिरूँ तेरी याद में,
जैसे कोई मदिरापान कराया हो मुझको,
किस्मत ने हराया है बदला है,
काली रात में मेरे दिन को,
कहूँ तुझको अपना खुद को ही मैं खुद का पराया।
कितनी बार ?
हाँ कितनी बार ऐसी ज़िन्दगी की टेढ़ी मेंढी,
पगडंडी पर गिरता उठता जाऊँ,
कितनी बार ?
कितनी बार उन बातों को भूलूँ,
जो मैंने कह दी थी तुझे भूल से,
अब उन बातों पर ही रो लूँ या पछताऊँ।
मैं कितनी बार ?
कितनी बार बनूँ मुजरिम हर जुर्म का,
ढोता जाऊँ पहाड़ इस बढ़ती उम्र का,
और खुद का नाम गुनाहों का देव बताता जाऊँ,
मैं कितनी बार ?
कितनी बार ?
कितनी बार ?
जितनी बार उन गुम हुए,
पन्नों को मैं तलाशूँ,
लिखता था जिनमें हर पहलू को,
भर के आँखों में आँसू,
अब एहसास हुआ थे ख़ास वो,
हर पल महसूस किया,
आ गया मंजिल के पास हूँ।
थे ज़ख्म दिए हर किस्म के,
टुकड़े किए बेरहमी से जिस्म के,
आग लगी है मेरे रोम-रोम,
आँखों से टपके मोम,
नहीं पर देख सके कोई,
इतना
हँस कर दर्द बकूँ,
सब कहते करता ढोंग।
अरे ऐसे है करता कौन ?
बिना किसी वज़ह के आँख में,
ऊँगली डाल के रोता है हाँ कौन ?
पत्थर की नाव बना के,
फिर पतवार बदलता है हाँ कौन ?
शादी के दिन सर कफ़न की,
पगड़ी पहन के चलता है हाँ कौन ?
अँधियारे की आँधी में,
दीपक जला के पढ़ता है हाँ कौन ?
हवे में सीढ़ी टांग के चाँद पे,
भाई चढ़ता है हाँ कौन ?
है कुछ ना कुछ तो वज़ह,
हाँ हर एक चीज़ के पीछे,
लोहे सा है बना कलेजा,
चुम्बक कविता इसको खींचे।
कितनी बार ?
वही पुरानी बात वही हालात कहूँ मैं,
कितनी बार ?
आखिर कितनी बार ?
अब हूँ मैं एक ना कोई सखी ना सखा,
हूँ चखा मैं नशा जो दगा का लगा झटका,
तो भगा सपनों से उठा जो बुरे थे।
कुरेदे मैंने हर एक छुरे जो,
मेरी नब्ज़ों से जा के जुड़े थे,
अब लफ़्ज़ों से गिरती हैं,
ख़ून से सनी हर नज्म़ें,
था कसमें जो खाने का खेल,
उसमें उन्हें १० में से १० पूरे मिले थे।
जमूरे बने थे हम उनके लिए,
हाँ सारे सुन के लिए थे मैंने बोल,
जो दिए बड़े जोर से मुझे झकझोड़,
गिरे पतझड़ की तरह कुछ लोगों ने,
चूर किया मुझे चहल चहल।
भरपूर दिया ना मौका किसी दर्द पे रोने का,
थी बड़ी लम्बी कतार और चहल-पहल,
अब बहल ना पाता है दिल बड़ा ढीठ है,
कितना भी कहूँ ये ज़माने की रीत है,
आज बना जो तेरे जिगर का मीत है,
कल दिल तोड़ के देता वो सीख है।
नहीं बनी कोई तकनीक है,
जो सुने ज़िंदा मुर्दों की मरी हुई चींख है,
प्यार करो ख़ुद से ना पसारो हाथ,
है बात अब आज की ऐसी की,
बड़े कम लोग ही देते हाँ भीख हैं।