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ख्वाब

ख्वाब

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ढलता सूरज, ढलते-ढलते,

कुछ ख्वाब सुहाने दे गया,

उगता सूरज, उगते-उगते,

कुछ आज साइन में जगा गया ।


ख्वाब की, भट्टी में,

यूँ पुर्जा-पुर्जा जाता है,

तपिश दुपहरी की फिर,

कहाँ तन को जला पाती है ।


रात की शीतल चांदनी भी,

कहाँ मन को सुकून पहुँचाती है,

खोजता रहता है मन,

मंज़िल की राहों को ।


कहते हैं, ख्वाब वही है,

जो न सोने दे तन को,

विकत परिश्रम से भी,

ना थकने दे, मन को ।


चंदा मामा, आज फिर,

लोरी में ख्वाब नया सुना गया,

आँख लगी पर, सो न पायी,

चिंगारी ऐसी साइन में भड़का गया ।


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