STORYMIRROR

गुलशन खम्हारी प्रद्युम्न

Abstract Drama Inspirational

4  

गुलशन खम्हारी प्रद्युम्न

Abstract Drama Inspirational

होली विशेष..

होली विशेष..

3 mins
348

जब रक्त चंडी का खप्पर मचलने लगा हो,

शुंभ निशुंभ मानव भेष में बहकने लगा हो।

कैसे मनाऊं मैं यह प्रेम की होली,

जब भारत दुश्मनों से सहमने लगा हो।।

जब पुरवैया चल रही हो,

मन सारिका बन कूक रही हो ।


प्रेमी-प्रेमिका प्रेमालिंगन में झूल रही हों,

आस-उल्लास त्योहारों के मूल रही हों ।


जब प्रेमिका स्वयं को राधिका और प्रेमी निज को श्याम माने,

प्रकल्पित उपालंभों में हर कोई रास रचाता घनश्याम माने ।


कोई छलकती जाम और प्रेम अष्ट प्रहर आठों याम लगे,

कर्म निष्ठ कर्तव्य पथ में भी मिलता हुआ आराम लगे ।


तुम सुनना चाहते हो प्रेम परिणय मिलन को,

प्रेम आलिंगन और रोते गाते बिछुड़न को ।


तुम सुनना चाहते हो किस्सा परी का महजबी का,

तुम सुनना चाहते हो हास परिहास चुटकुला हंसी का ।


तुम सुनना चाहते हो मुस्काती शमा ठिठोली का,

मधुशाला में मधुपान करता त्यौहार होली का ।


तुम सुनना चाहते हो दिल में उमड़ती उन्माद को,

तुम सुनना चाहते हो प्रेमी प्रेमिका के संवाद को ।


तुम सुनना चाहते हो कर्णप्रिय बातें सभी,

इश्क और आगोश में खोई हुई रातें सभी ।


होली का फाग बिना पलाश के हो नहीं सकता,

युद्ध की विभीषिका बिना लाश के हो नहीं सकता ।


और तुम सुनना चाहते हो प्रेम मग्न वेदना,

आधुनिकता में कुचली हुई मानवीय संवेदना ।


प्रेम-प्रीत रिश्तों को पाटती हुई खाईयॉं,

रतजगे आंखों के नीचे काली काली झाइयां ।


याद रक्खो सैनिक मरे थे तुम्हारे और मेरे लिए,

नमन है उनको जो होली में मौत के फेरे लिए ।


माॅं भारती से पूछो जरा उनके उत्कर्ष का,

इस माटी के रज-रज में रक्त बहा है संघर्ष का ।


यहीं होली विदेशी वस्तुओं की जली थी,

आज के मानवता से वही मानवता भली थी ।


इस माटी में लावण्य-लालित्य ललना के सिंदूर हैं,

शोक-विलाप करती विधवाओं के क्रंदन भरपूर हैं ।


बच्चे बूढ़ों की लाशें और तार-तार होती बेटियों की अस्मतें,

राजनीति के हाथ कठपुतली बनती युवाओं की किस्मतें ।


इसी माटी में मिटी थी होलिका,

आह्लादित करती प्रहलाद की प्रहेलिका ।


इस माटी में समाए अनगिन बंदूक तोप व गोलियॉं,

टूटी चूड़ी, मिटाया हुआ सिंदूर अक्षत और रोलियाॅं ।


कोरोना के भीषण महामारी में कोई सीमा पर खड़ा है,

हिमालय नहीं पर हिमालय सा बनकर अड़ा है ।


खुश रहो तुम तुम्हारे त्योहारों में मैं शामिल नहीं हो सकता,

प्रेम प्रलापी प्रेमांध होली का कोकिल नहीं हो सकता ।


मैं रक्त तिलक लगा लूंगा फाग नहीं उड़ा सकता,

वीर जवानों की शहादत पर हॅंसी नहीं चढ़ा सकता ।


जब तुम होली की फाग उड़ाते खुशियां मनाओगे,

पति विहीन किसी विधवा को कैसे समझाओगे ।


कोई कुल का तारक लड़ते लड़ते मिट जाएगा,

वंशावली का प्रणेता चिर निद्रा में सिमट जाएगा ।


तुम बस मौन धारते कैंडल मार्च करते रहना,

चंद मिनट अखबारों से हाय-हाय ही करते रहना ।


होलिका जलाओ या ना जलाओ मन के पाप को जलाओ,

मृत्यु सस्ती हो गई, मौत बांटते उस यमराज को मनाओ ।


होली चिरकाल से मनाती जाती रहेगी,

सैनिक विहीन क्या माॅं भारती सुरक्षित रहेगी।


है यही आरजू कि सैनिकों को भी श्रद्धा सुमन अर्पित हो,

पूरा दिन होली हो बस चंद मिनट ही जवानों को समर्पित हो ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract