रज रज बनैं अबीर..
रज रज बनैं अबीर..
कलकल बहती पावन नदियां,गावैं प्रेमिल नीर ।
सोहै माटी जैसे चन्दन ,रज-रज बनैं अबीर ।।
ध्वजा पताका देखो कैसे,फहर-फहर के फहरैं ।
मानो गंगा की धारा सह,लहर-लहर के लहरैं ।।
अहम द्वेष को छोड़ों भाई,भरें वही किलकारी ।
अकड़ रहा था कैसे देखो ,टूटा पड़ा शमशीर...
खुशहाली की खातिर मिटते ,कई यहॉं रणधीर ...
हॅंसकर जीना ही जीना है,काहे रोना धोना ।
विपदा कैसे आई थी जी,कलमुंही कोरोना ।।
ना ना कहना इसको साथी,हॅंसना है गुणकारी ।
खुश हो लो, तुम शेष बचे हो ,राख हुए गंभीर..
आत्मा कहीं न मिटता मरता,मिलता नया शरीर ...
गहराई में आखिर कबतक ,गहर गहर के गहरैं ।
सच के सम्मुख बुजदिल इक दिन,हहर हहर के हहरैं ।।
जीवन नदिया बहती धारा,धारा है हितकारी ।
तू भी इक दिन माटी होगा ,कह गये दास कबीर ..
जिसने इसको जान लिया है,बन गये संत फकीर ....
भैया भाभी को देखैं अउ,फूट रहीं हैं मणियां ।
चुपके-चुपके आलिंगन हॉं ,लिपट रही वल्लरियां ।।
बहनों ने भी खूब उड़ेला,रंगों की पिचकारी ।
अनबन भीजैं,तन मन भीजैं,भीजैं सारी चीर..
होली मीठी बोली मीठी, मॉं के हाथों खीर ...
