स्वनिर्माण
स्वनिर्माण
कर रही यथाशक्ति मैं निर्माण अपना,
सत्य करना है जो देखा है सपना,
इन भावों के मिहमामंडल में मुझे नहीं है बहना,
इस कठोर श्रम को चाहती हूँ मैं सहना।
हाँ ! है समय कम पर है बडा़ कुछ करना,
गर है परिस्थिति विरुद्ध तो उससे भी है लड़ना,
प्रकृति का प्रेम पाकर निश्छल बच्चे-सा उछलना,
ताकना आकाश को पंछियों संग है उड़ना।
क्यूँ चाहता है मन सूर्य-सा चमकना,
क्यूँ चहती है स्वर बिजली-सा कड़कना,
क्या मैं भी गा सकूँगी कभी गीत अपना,
सिखाना है मुझे जग को दीपक-सा जलना।
बस एक बार सीख लूँ खुद लक्ष्य-पथ पर चलना,
इस शरीर में यह आत्मा है इक खजाना,
पाकर इस ब्रह्म को है जीवन सत्य करना,
देवी ! तुम्हारे गोद में सर रखकर है सोना।
अबोध-सी मैं चाहती हूँ तुममें ही रमना,
करके स्थापित अस्तित्व को मुझे है जगना,
रहस्यों से भरे इस समुद्र पर मुझे है चलना,
सामने प्रभु आपके खिलखिला कर हँसना।
असफलताओं से खीज कर आपसे ही रूठना,
फिर लाखों अरमानों के सामने सिर झुकाना,
और फिर वापस आ आपके ही चरणों पे गिरना,
क्या सही है आप पर मेरा विश्वास इतना।
क्यूँ नहीं चाहती मैं कभी आपसे दूर रहना,
क्या ऐसे ही कर पाऊँगी मैं स्थापित ये सपना,
आपके ही बारिश को अपना-सा बनाना,
और आपके ही कानन में घूमना इतराना।
क्या सही है स्वनिर्माण का यह मार्ग अपनाना ?