क्यूं
क्यूं
क्यूं कुछ बस में नहीं,
क्यूं कुछ मन को भाए नहीं,
क्यूं सब ख्वाब सा लागे है,
क्यूं खुल से गए सब कच्चे धागे है।।
क्यूं अंगीठी की आंच सा तपने ये तन लगा,
क्यूं मन में अंधेरा आशियाना बना चुका,
क्यूं अपना ना लगे कोई,
क्यूं बिखरे सपने फिर जुड़ते नही।।
क्यूं वो घरौंदे माटी माटी हुए है,
क्यूं हर जवाब सवाल का रूप ले बैठ है,
क्यूं हम अधूरा वो सच पूरा कह ना पाए,
क्यूं मुझे रूठे मेरे ही साए है।।
क्यूं फिक्र कल की धुंधला आज को कर देती है,
क्यूं ये घड़ी मुस्कुराहट को चुप कर देती है,
क्यूं बारिश मेरे आंगन से गुज़रे है,
क्यूं ये मौसम सफेद कोरे से है।।
