झरोखें
झरोखें
झरोखें
दीवारों में नई जान सी देकर,
वो मानो चुप है एक हुंकार को सुनकर,
कला उसमें समाई,
वो आज खुदके हुनर पर इठलाई,
घूंघट के झरोखों से निहार भी लेती है,
चंद पलों में ही कई लम्हे जी लेती है,
दो बातें अब दीवार की कलाकारी से कर लेती है,
जी ऊबे जो उसका टूटी मला फिर पिरो देती है,
शिकायतें कई है उसकी पर जायज़ एक न लगती है,
ख्वाइश कई है उसकी पर अक्सर चुप ही रहती है,
दूर दराज वो बिहाई जब से,
उसके बसेरे जाती गलियां खो गई किसी धुंध में,
अजीब लिखी है लकीरें ईश्वर ने,
रोक दी शायद उसने कलम बीच में,
सहर बिदाई के सिक्के लेके चल दी,
बिखरा सारा काम समेट वो भी चौखट के भीतर बढ़ गई,
काम में अब उलझी ही रहती है,
आंखे पसारे बस भोर के इंतजार में रहती है,
– गोल्डी मिश्रा
