बिंदी
बिंदी
बिंदी
उन्मुक्त गगन की पंछी सी,
वो अपने पंख ही भूल गई,
घोंसला बनाने की दौड़ में,
वो अपना बसेरा ही भूल गई,
परिवार के पालन में,
वो सब बंधन ही भूल गई,
हर सवेरे रोटी की खोज में,
वो अपनी शाम ही भूल गई,
मीलों का सफ़र तय कर में,
वो अपनी राह ही भूल गई,
बच्चो के पेट की भूख मिटाने में,
वो अपनी रोटी भूल गई,
वो चलती है इस समाज में,
और हर नज़र उसे ही भूल गई,
दो घर की मर्यादा थी,
और उसकी देहलीज़ ही छूट गई,
ये गालियां थी पुरषों की,
जो महिलाओं के पदचिन्ह भूल गई,
– गोल्डी मिश्रा
