आज़ाद पतंग
आज़ाद पतंग
आज़ाद पतंग
आज़ादी की नई सवेर आज फिर थी आई,
आकाश में वो पतंग आज फिर नज़र आई,
छूकर गगन वो ज़मीन पर आ गिरी,
खुश थी वो की आखिर आज़ादी छू आई,
दूर घूम आई थी वो शिखर हिमालय के,
सुन कर आई थी गीत चाय के बागानों से,
छूकर वो गंगा कावेरी भी आई थी,
सुन कर वो सब राग आई थी,
वो मीरा, रसीक, और सूर दास को पढ़ आई,
घूंघट में छुपी वो रूप और लाली को भी देख आई,
आधे लिखे वो खत भी पढ़ आई थी,
मंदिर,मज़्ज़िद,गिरजा में वो आस्था भी देख आई,
किनारे पर ठहरी जो वो नौका भी अजीब बेचैन थी,
लहरों में आज़ादी छूने को वो भी आतुर थी,
कलम किसी लेखक की,
कागज़ पर ढूंढ रही थी झलक आजादी की,
बंधन कई हैं इस आज में,
जिन्हें तोड़ कल देखने की आस है,
निहारे वो आकाश एक आस में,
नई डोर बांधे वो फिर उड़ दी आकाश में,
– गोल्डी मिश्रा
