मन की प्यासी
मन की प्यासी
वो तन का भूखा,
मैं मन की प्यासी,
लुभाने को कहता,
श्रृंगार करो, सुन्दर लगती हो|
करती श्रृंगार रोते-रोते,
आया वो, निहारा;
निहारा नहीं जितने पल,
उससे ज्यादा नोंचा उसने,
वो निकल पड़ा काम के बहाने|
बिखरा देख श्रृंगार,
बोला मैंने, देखा
ऐ माथे की बिंदी,
नाक की नथनी,
हाथों के कंगन,
पाँवों की पायल,
नंगे बदन के आगे,
तेरी औकात क्या है!
