डरावना एहसास
डरावना एहसास
एक डरवाने से एहसास ने कभी मुझे चैन
से जीने ना दिया,मेरी इन नम आँखों का इस
पानी को इस डर ने कभी सूखने ना दिया पल
को भी जीने ना दिया,बचपन युहीं मेरा बस
धीरे धीरे इसी डर के साये में गुज़रता रहा,और
ये डर मुझ पर दिन ब दिन और ज़्यादा हावी
होता रहा,किस्से कहानियों में भी इसका ज़ोर
हमने पल पल महसूस किया,जबरन की मनमानी
का येकिस्सा हमें खिलाफ खुदके बस सेहते हि
रहना पड़ा,इसमें तो कोई दो राये भी नहीं की
इसकी हर बात हमारे डर को बढ़ा रही थी,हम
ये जान रहे थे की बस हमारे लिए हि ये सुबह
दोपहर शाम और रात के मायने कुछ अलग हि
थे,इस डर का ज्ञान हमारी ज़िंदगी के हर पल
की खुराक हुआ करता था,छोटे से लेकर बड़े
होनेतक कभी ज़िंदगी को हमने खुलकर ना
जीया और हमारे प्रति हि ऐसी परिस्थितियां
तैयार कर दी गयीं की जैसे हमने हि बस इस
धरती पर जन्म लेकर सबसे बड़ा कोई गुनाहकर दिया,
और जिसका बदल पना भी ना मुमकिन
हो,और ये डर हमें किसी और का नहीं बल्कि
हमें हमारे हि जैसे दिखने वाले कुछ वैहशी
दरिंदे पुरुषों का है,जिनकीगंदी करतूतों के
कारण हमारा जीना दुश्वार हो रहा है,और हम
बेगुनाह स्त्रियों को अपने बचपन से लेकर
बुढ़ापेतक की ये बेवजह सज़ा भुगतना पड़ती
है,ना जाने हमारी ज़िंदगी में भी कभी खुलकर
जीना लिखा भी या नहीं।