संस्कार
संस्कार
समाज का देख रूप भयंकर, इस प्रश्न ने सबको घेरा है
कहाँ कमी रह गई परवरिश में, सबने अंत समय में छोड़ा है।।
गहराई अब नहीं भाव में, शायद, बढ़ते रिश्तों का झमेला है
मजबूरी संग लेकर चलना, सबको तन्हाइयों ने घेरा है।।
नहीं सिखाया आदर-मान जो, पहना जिद, मनमर्जी का चोला है
संस्कार ही वह धागा होता, परिवारों को जिसने जोड़ा है।।
हर इच्छा तो पूरी करते, मुंह संस्कार से क्यूँ मोड़ा है
अपने काम में व्यस्त रहता, न बच्चों संग ही खेला है।।
न अन्तर मन भी शांत किसी का, घर वहम, क्रोध ने तोड़ा है
अच्छे बुरे का ज्ञान न कोई, फिर भी संस्कार से हमने मुंह मोड़ा है।।
मोह, शूल है हर व्याधि का, डाला काम, लोभ डेरा है
ध्यान दिया न इस बात पर, जग स्वार्थी जनों का मेला है।।
जिम्मेदारियाँ बहुत बड़ी थी, ये खेल तो सबने खेला है
भावनाएं बच्चों की समझ न पाया, यूँ बच्चों ने मुझको छोड़ा है।।