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Darshan Oza

Drama Others

2.5  

Darshan Oza

Drama Others

वो हिजड़ा था

वो हिजड़ा था

2 mins
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आवाज़ एक वो गूंजी थी,

वो एक सुर मिलाया था,

मासूम था वो चेहरा,

फिर क्यूँ हिजड़ा,

वो कहलाया था।


जिस्मानी तौर से चूर था,

आँखों में फिर भी नूर था,

बेकार था, बीमार था,

दुनिया से कोसो दूर था।


ढकता छाती को पल्लू से,

मर्दानी-सी चाल थी,

दो लिंगो के बीच वो,

पैदा हुई मिसाल थी।


मह्जबों के दौड़ में,

वो एक अकेला गुम था,

भगवा हरा रंग है,

ये सिर्फ उसे मालूम था।


नाम लेकर अल्लाह का,

मंदिर के दर वो आता था,

अगरबत्तियाँ रोज़ लगाकर,

चादरे भी चढ़ाता था।


चेनाब था, शराब था,

अँधेरा था, आफताब था,

किसी की अम्मी या एक बाप,

बनना महज उसका ख्वाब था।


शुक्रवार की शाम को जब,

वो ट्रेनों में लटकता था,

एक वक़्त की रोटी खातिर,

दर बदर भटकता था।


तलाश करता इंसानियत की,

मिलता एक पैगाम था,

औकात में न रहने का,

लगा उसपर इलज़ाम था।


चूँकी...

मर्दों के साथ वो सोता था,

औरतों के साथ वो रोता था।


तालियों से गुफ़्तुगू करता,

एक ऐसा किरदार था,

चांदनी रातो में बिकता वो,

बेशकीमती औजार था।


लाल पीली नीली साड़ी,

जब माथे पर वो ओढ़ता था,

मर्दों और औरतो का वो,

घमंड हमेशा तोड़ता था।


न राम था, न रेहमान था,

न हिन्दू,न मुसलमान था,

महज चव्वनी उसके,

हाथ पर रखकर,

मुझको बाबू कहने,

वाला एक इंसान था।


बदकिस्मती की वो लकीरे,

उसके हाथो पर जो छाई थी,

बनारस का पान चबाकर,

खुशियों वापस आई थी।


उसको नकार कर देना भी,

एक ऐसा पाप था,

कहावत थी की ऋषियो से भी,

डरावना उसका श्राप था।


सुना है की आज कल वो,

बाजारों में भी दिखता है,

भूखी नंगी चमड़ी का,

ईमान हमेशा बिकता है।


कौन जाने वो जिस्म हमेशा,

कितने दर्द छुपाता है,

सर्द रातो के दरम्यां शायद,

नंगा ही सो जाता है।


गोदभराई के सपने अक्सर,

नींदों को उड़ाते है,

बच्चे की किलकारी सुनकर,

"माँ", "पापा" ये लव्ज़,

बड़े याद आते हैं।


मौत निकल आती है उसके,

ज़िन्दगी के संदूक से,

पेट भरना पड़ता है उसको,

मर्दों की वो थूक से।


कोई न जाने वो हिजड़ा,

हमेशा कितना बदनाम था,

अनजान था, परेशान था,

भगवान् था, शैतान था, हैवान था,

ज़िंदा होकर भी...वो बेजान था।


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