कोई ना था, बस आदत थी
कोई ना था, बस आदत थी
एक अरसा हुआ मुझे भूले,
वो गीत जो मेरी चाहत थी
अब बदल दिए मैंने सबकुछ,
वो पहले जो मेरी आदत थी
मैं चलते चलते रुक जाती हूं,
जब लगता है कोई आहट थी
और जब जब मुड़कर देखा मैंने
कोई ना था, बस आदत थी।।
हां बदल दिए मैंने सबकुछ,
वो मीत पुराने, वो गए ज़माने
अब रंग भी कोई ना भाता
और याद नहीं कोई अब आता
मैं बंद किताबों को फिर से,
एक बार पलट ही देती हूं
जिया नहीं जाए फिर भी
मैं हँसकर के जी लेती हूं
अब कितना बदलूं बातों को,
सो बातें भी कर लेती हूं
वो फ़राज़ साहब की ग़ज़लें भी
मैं शौक़ से अब पढ़ लेती हूं
मैं कर लेती हूं वो सब कुछ
जो पहले ना मेरी आदत थी
और चलते चलते रुक जाती हूं,
जब लगता है कोई आहट थी
और जब जब मुड़कर देखा मैंने
कोई ना था, बस आदत थी
कोई ना था बस आदत थी...