शाम, नज़्म, और इश्क़
शाम, नज़्म, और इश्क़
किसी एक वीरान शाम में,
मैं मोहब्बत की कैफ़ियत लिखूँगी।
हाथ में एक क़लम, साथ चाय की प्याली,
मैं मोहब्बत के बाद की सभी मशरूफ़ियत लिखूँगी।
लिखते हुए आँखों के किनारे पर जब दो बूँदें हलचल करेंगी,
उसमें डूबती हुई मेरी सोचों की सारी सहूलियत लिखूँगी।
मैं कोशिश करूँगी उस दिन भी उसको पाक-साफ़ लिखने की,
जो न लिख सकी तो फिर से यादों की ज़िल्लत सहूँगी।
जो सह लिया, वो लिखा नहीं;
जो ख़्वाब थे वो लिख लिया।
इन ख़्वाबों की क़लम उठाकर,
बस काग़ज़ की इज़्ज़त रखूँगी।
किसी एक वीरान शाम में,
मैं मोहब्बत की कैफ़ियत लिखूँगी।
