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Phool Singh

Drama Classics Inspirational

4  

Phool Singh

Drama Classics Inspirational

बचपन

बचपन

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दादा-दादी के हाथ को पकड़े, घूमते थे हम सारे गाँव 

पिता के कंधे की करते सवारी, भाई-बहन से कभी झगड़े जाएँ।


छोटा सा बस्ता कंधे लटका, न स्कूल भी होते घर के पास 

डंडे खाते कभी मुर्गा बनते, जब पूरा न होता अपना काम।


कंचा-गोली, गुल्ली-डंडा, और चलाते तीर-कमान 

तितलियाँ पकड़ते वन-उपवन में, सरपट दौड़ लगाते तेज रफ्तार।


बारिश आए तो नाचते-गाते, बन जाते नाविक खास 

छोटी-छोटी नाव बनाकर, उन्हे तैराते पानी में डाल।


नदी-नहर में डुबकी लगाते, बन जाते हम तैराक 

लोट लगाते मिट्टी में यारों, खाते मम्मी-पापा से डॉट।


कान खीचते कुत्तों के हम, बिल्ली भी लेते हम सब पाल 

बादशाहों सा अनुभव करते, करते घोडा़-भैंसें की सवारी खास।


आँख मिचौली का खेल-खेलते, बन जाते थे, पतंगबाज़ 

पुराने पहियों को मार-मारकर, गाड़ी बनाते उसकी खास।


कुल्फी पाते पुरानी चीजों से, खाते बुढ़ियाँ के हम सब बाल 

खट्टे-मीठे चूर्ण के भी यारों, चटकारे लगाते उसकों चाट।


लंगड़ी-टांग का खेल भी खेले, बन जाते फिर शक्तिमान 

लट्टू घुमाते ज़ोर लगाके, अंवारे कहलाते गाँव-देहात।


उससे कट्टी इससे दोस्ती, ग्रुप छोटे-बड़े भी तब बन जात 

जिंदगी बनाने की किसे पड़ी थी, खाते-पीते,


मौज बनाते, होती, बचपन की सुंदर कितनी याद।


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