यादों का पिटारा
यादों का पिटारा
पेटी में लिपटी रखी
अम्मा की कांजीवरम साड़ी
जतन से खोलते उसकी तह
यूं महसूस हुआ जैसे
बिस्तर पर पड़ी
जर्जर काया माँ को
हल्के से छुआ हो
ठन्डे पड़े हाथ की गरमाहट को
साड़ी की तह के बीच
गाल पर महसूस किया माँ
सालों से लाकर में रखे बूंदें
आज निकाल कर लाई हूँ यूँ ही
न कोई उत्सव न कोई जलसा
कितने ही आधुनिक जेवरों के बीच
कितने पुरातन
पहली बिटिया की जचकी के
कितने ही पहले
बनवाकर रख लिए थे तुमने
और बिफर पड़ी थी मैं
क्या माँ कोई ढंग की
डिजाइन बनवाई होती
तुम्हारा धुआँ धुआँ चेहरा
रह रह कर आईने में
बूंदों की जगह झलक जाता है माँ
तरतीब से जमी
साड़ियों की अलमारी
यूँ ही खोल कर बैठी हूँ आज
तुम्हारी दी हुई साड़ियों की
अलग तह लगाते हुए
कभी सोचा ही नहीं
बाबूजी की पेंशन
भैया की सीमित आय में
कैसे ससुराल में मेरे मान को
बनाये रखने के लिए
तिल तिल जोड़ कर
इतनी साड़ियाँ दीं तुमने
कभी तुम्हें ख़ुशी नहीं जताई
कभी न माना आभार
आज साड़ियों का ढेर
अपने दंभ से बहुत बहुत
बड़ा नज़र आता है माँ
वो नानी की सिंगार पेटी
दादी के पानदान का वो सरौता
संजो कर रखे थे
जो तुमने अपने यादों के पिटारे में
साधिकार ले आयी थी जिन्हें
आज उन सब चीजों में
तुम्हारे न होने के बाद भी
तुम्हारा ममतामयी निरीह चेहरा
नज़र आता है माँ।