अन्तर्मन की आवाज
अन्तर्मन की आवाज
अतृप्ति भयावह, संताप कहीं, विरह की वेदना भारी है,
किससे कहूँ, कैसे कहूँ अन्तर्मन की दुर्दशा,
ये दुखी, कितनी अंधकार की मारी है
कुछ भी अच्छा न दिखता, जिंदगी में तम, अज्ञान का प्रभाव भारी है।।
आत्मा का कोई न संगी-साथी
वो बेचारी अंजान, अजीब एकांत की मारी है
चलना-जाना अकेले हर पल, जग मेला निर्जन, बंजर, हर भाव से खाली है
अपने कर्मों का सब लेखा-जोखा, बस उसी के संग में यारी है।।
अछूता, अपूर्ण है जीवन उस पर,
अहं, मोह, माया में डुबकी ज़ोर की मारी है
ज्ञान-विज्ञान की बातें झूठी, सच तन, मन, धन व पद अभिमानी है
सुनाई ना आवाज अन्तर्मन की, मोह की चाल ये भारी है।।
हम तुम की औकात ही क्या, उसके समक्ष धीर वीरों ने बुद्धि हारी है
चाह कर भी कोई छूट ना सकता,
सब अवगुणों की सूरत प्यारी है
सब कुछ उसमें अच्छा दिखता, अच्छाई में कड़वाहट भारी है।।
कठिन है पर असंभव नहीं, बस दृढ़ कर्म की देरी है
साध लिया जो एक बार मन को, चरणों में जग की खुशियाँ सारी है
पाप-पुण्य कुछ नहीं बस,
ये मन-बुद्धि का द्वंद्व भारी है।।