प्रियतम
प्रियतम
कुछ पंक्ति जब प्यार भरी
लिखनी प्रियतम के नाम हैं
कौन भला यह जान पायेगा
कितना कठिन यह काम है ।
वह जो कुछ भी नहीं थे मेरे
प्राण बने अब रहते हैं
जैसे बेल को दिए सहारा
वृक्ष तने सब रहते हैं ।
उनसे ही अस्तित्व
उन्ही से हंसी खिली है होठों पर
भूल गयीं अँखियाँ सब आंसू
गीत सजे हैं होठों पर ।
क्या बतलायें उनको उनसे
रिश्ता कैसा अपना है
साक्षात मूरत में ढल गया
बरसों का वो सपना है ।
कैसे लिखेगा कलम
भावनाएं जो मन न समझ पाए
जितना पिया से दूर रहे
उतना ही उन में उलझ जाये ।
वात्सल्य उनकी आँखों का
वर्णन से है दूर बहुत
स्नेहिल वोह मुस्कान कसम से
करती है मजबूर बहुत ।
जान पड़े आकांक्षाओं में
जब दीख जाये उनकी सूरत
राधा के लिए कृष्ण थे जो
मेरे मन उनकी वो मूरत ।
वो जैसे ईश्वर ने भेजा -
जा तू जहाँ वोह धरती है !
बिछा के पलकें जोगन इक
इंतज़ार तेरा बहुत करती है ।
इस कारण बिन जान-समझ
मेरे जीवन में आये चले
भर दी खुशियों से झोली
किया गगन पैरों के तले ।
सच कर दिए स्वप्न सभी
उन्होंने पास हमारे आते ही
कि लगे स्वप्न सा यह जीवन
मन कांपे खुद को जगाते भी ।
आये हो तो प्रियतम मुझको
छोड़ कहीं न जाना तुम
जिस नगरी से खींच लाये हो
वहीँ न फिर पहुँचाना तुम ।
तुम बिन आँखों के मोती
बरसेंगे इस झोली में
मेरी खुशियों के रंग सभी
फिर बिखर जायेंगे होली में ।
तुम बिन राधा फिर से देखना
रूप धरेगी मीरा का
कौन जान पायेगा मर्म
उसके हृदय की पीड़ा का ।
ऐसा न हो जाने से तुम्हारे
जग तो सारा संभल जाए
पर 'शैली' के तन से
धीरे से यह प्राण निकल जाएं ।