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Shailly Shukla

Others

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Shailly Shukla

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दादी

दादी

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दिल्ली की ठिठुरती रात में,

आज भी जब हाथ धोती हूँ,

और शीत पानी को छूकर,

सुन्न पड़ जाते हैं मेरे हाथ


और गालों पे हाथ लगाने भर से,

चिढ़ जाते हैं भाई-बहन,

या भाग खड़े होते हैं दोस्त,

या शरारती हो जाते हैं हमदम।


तब

मेरी आँखों में फिर तैर जाती है,

तुम्हारी वही पुरानी तस्वीर-

रज़ाई के भीतर लेटी हुईं।


बाहर दीखता

तुम्हारा बूढ़ा, मुलायम,

सफ़ेद और ख़ूबसूरत चेहरा।


मुझे अपनी ओर आती देखतीं

तुम्हारी स्नेह भरी आँखें,

और व्याकुल होता मन ।


तुरंत हलचल में आ जाती थीं तुम

और मुझे समेत लेती थीं अपनी गरमाहट में,

जैसे सूरज समेटता है ओस को।


तुम्हारे गर्म शरीर की आँच से,

ठिठुरती रात गुनगुनी हो जाती थी,

और तुम मेरे हाथों को सहलाती थीं,

मेरे और तुम्हारे हाथ एक से गर्म होने तक।


किसी रोज़

अख़बार में पापा के नाम सा कोई नाम देख के,

कैसे इतराती थीं,

बरसों की तपस्या का फल मिल गया हो जैसे।


काग़ज़ के टुकड़े को संभाल कर रख देती थीं,

जैसे अख़बार नहीं दसवीं की मार्कशीट हो।


और गूँजने लगते हैं,

तुम्हारे ढेरों जाने पहचाने सवाल-

क्या बनोगी बड़ी होकर ?

मुझको रखोगी अपने बड़े घर ?

याद भी रखोगी या भूल जाओगी ?


और मेरे बालपन के मासूम जवाब,

सच और दुनिया से बेख़बर-

ये दूँगी लाकर, वो दूँगी लाकर,

नौकर-चाकर,

इतना बड़ा घर-उतना बड़ा घर !


फिर लौट आती हूँ मैं

वर्तमान में

जहाँ मैं बड़ी हूँ,

घर बड़ा है,

नौकर-चाकर,

बड़ी नौकरी,

पर..


दिल्ली की ठिठुरती रात में,

ठंडे शीत हाथ,

ठंडे ही रह जाते हैं... दादी...


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