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स्त्री

स्त्री

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मैं केवल मांस का पुतला नहीं हूँ,

कि मुझे देखते ही भेड़िए टूट पड़ें मुझ पर।


ना ही कोई मिठाई का टुकड़ा,

कि भिनभिनाती मक्खियों का अधिकार हो मुझ पर।


और ना ही कोई बेजान हीरा,

कि मेरे चुराए जाने का भय हो मुझे।


केवल वस्तु मात्र नहीं हूँ मैं,

जीवन जीवित होता है मुझसे !


कि मैं उगते हुए सूर्य का प्रकाश हूँ,

झिलमिलाती रात हूँ, असीमित आकाश हूँ।


लहराती हवा हूँ, बारिश की बूँद हूँ मैं,

बाँध सकोगे मुझे ?


सौंदर्य हूँ मैं, सुगंध हूँ,

मेरे होने से महकता है तुम्हारा संसार।


और तुम मुझे धूमिल करके मेरी ही त्रुटि बताते हो ?

कि क्यों स्वयं को समेट ना लिया ?


सूर्य का प्रकाश, झिलमिलाती रात,

नदिया की लहरें, लहराती हवा जब स्वयं को समेटेंगीं।

कितनी बेरंग होगी यह धरती !

फिर ना कोई मुस्कान, ना गालों के गड्ढे,

ना पायल की झनकार,

ना आँखों का वात्सल्य !

मेरी और तुम्हारी दुनिया अलग-अलग होगी !


स्वीकार्य है तुम्हें ?


नियमों की बेड़ियों में मुझे बाँधने को प्रयासरत तुम।

कदाचित भूल गए हो तुम,


अंकुश नहीं हूँ, विस्तार हूँ मैं,

तुम्हारे अस्तित्व का आधार हूँ मैं !


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