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Kusum Joshi

Abstract

4.5  

Kusum Joshi

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वो रात दीवाली की

वो रात दीवाली की

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दीपों के रोशन अंधियारे में खोता सा,

आतिशबाजी के सन्नाटे में रोता सा,

तारों के झुरमुट में कहीं दूर से आती,

तन्हा वो सिसकी जाने किसे बुलाती,


आसमान में एक धुंए की चादर फैली,

लगता है नभ ने रात में होली खेली,

गगन रात भर सुबक सुबक कर जलता होगा,

मदहोश शहर जब आतिशबाजी करता होगा,


रात पसर कर ऐसी फैली अम्बर भर में,

सूरज क्रोधित हो छिप बैठे दूर तिमिर में,

और हवा में जैसे कोई ज़हर घुल गया,

आतिशबाजी को वो सारा नशा धुल गया,


अब क्यों रोता सोच किया क्या पागलपन सा,

अपनी ही धरती को क्यों कर दिया मलिन सा,

पल भर का आनंद समझता जिनको खुशियाँ,

विष से कैसे भर दी उठाने अपनी दुनिया,


रोशनी के इस पर्व में धुंध की बदली छाई रे,

महानगरों के लिए दीवाली अंधकार ले आई रे,

अनजाने ही दे दी हमने सौगात दीवाली की,

दिन में भी हंसती है अब वो रात दीवाली की।।


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