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mohammad imran

Abstract

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mohammad imran

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माहवारी

माहवारी

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नारी कुछ दिन बडा बेचैन रहती है

सहे पीड़ा मगर मुँह से कुछ न कहती है

मर्ज ये इनको हर माह आता है

इस मर्ज के आगे इनको कुछ न भाता है

कुछ के जल्द जाता है कुछ परेशान रहती है

घुटती है तड़पती रोजमर्रा का काम करती है

दर्द चाहे जितना भी हो कहा आराम करती है

कुछ के काले सच हमे परेशान करता है

ये निर्दयी समाज कभी इन्हे शर्मसार करता है

कभी अभाव नासमझी में कैंसर पकड़ता है

कभी हवस के भेड़िये इनको उस हाल में भी नोच खाते है

चली जाती है मरण सैया पर

क्यों के ना बोल पाती है

लाज के खातिर न राज खोल पाती है



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