मेरे दोस्त!
मेरे दोस्त!
हाँ, थे वो कुछ हसीन लम्हे जब हम उनसे रूबरू हुए,
कौन जानता था की अजनबी भी अज़ीज़ हो जाएंगे
और मेरी महदूद मोहब्बत कुछ लोगो में तक़सीम।
हाँ थे हम पहले पायाब गड्ढे की तरह
फिर कुछ लोग आये जिन्होंने हमारे अंदर का वो
दरिया तलाशा।
ये वही लोग हैं जो मेरी मशिययत से मेरे मुसलसल
बन गए और धीरे धीरे मेरी हाजात बन गए।
कौन कहता है कि इंसान परिंदे में तब्दील नहीं हो सकता
वो पहले ऐसे थे जिनकी शाहीन जैसी निगाहें मेरे खाने
पर रहती थी।
इसे इत्तिफ़ाक़ कह लो या तक़दीर, गाफ़लत कह लो
या मोतज्ज़ा या कुछ और।
हाँ थे हम थोड़े इख़्तिलाफी क्योंकि सकावत से
थोड़ा मुख़्तलिफ़ थे तभी शायद अम्मीजान के हाथों
कभी-कभी रुक्सार लाल भी हो जाते।
हाँ किए हैं कुछ वादे एक दूसरे से की मशक़्क़त से
कामयाबी तक हाथ थामे जाना है बेशक आएँगे
कई हरीफ इस रास्ते में मगर फिकर किसे है
जब तक तेरा हाथ मेरे हाथ में है।
आखिर में बस इतना कहूंगी - खाली हयात तक न समझना
मेरे दोस्त मेरे इरादे तो आफ़क़ तक तेरे साथ जाने के हैं
क्योंकि तू ही तो मेरा अल-वदूद है।
