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Aanart Jha

Abstract

4.3  

Aanart Jha

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मेरे अंदर दो इंसान है

मेरे अंदर दो इंसान है

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मेरे अंदर दो इंसान है 

एक खुश है और एक परेशान है 

एक आजाद है और एक गुलाम है 

एक दुखी है तो एक उदास है

एक रूई है तो एक कपास है

एक दूर है मुझसे, एक मेरे पास है

एक डरपोक है, एक जांबाज़ है

एक जिस्म है, तो दूसरा जिंदा लाश है

हां मेरे अंदर दो दो इंसान है

एक कुछ भी नहीं तो दूजा बहुत खास है

एक जुदा है मुझसे दो दूजा मेरी पहचान है

एक का बसेरा है मेरा जिस्म 

तो दूजे का इस दुनिया में एक मकान है

एक फरिश्ता है तो दूजा एक इंसान है

एक अमर है अविनाशी है

तो दूजा इस दुनियां में कुछ वक़्त का मेहमान है

एक कि ना कोई मंजिल ना सफर 

तो दूजे की आखिरी डगर शमशान है

मेरे ही जिस्म में नहीं

हर किसी के जिस्म में दो दो इंसान है।


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