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Aanart Jha

Abstract

4.2  

Aanart Jha

Abstract

परछाईं

परछाईं

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यह परछाइयां भी, कैसी है ना उम्र भर, हर पल साथ चलती है

गम हो या खुशी, हर वक्त साथ निभाती है

सिर्फ एक बात है जो वह, उम्र भर नहीं कर पाती है हमसे बात,

कई बार तुम्हें रोकना चाहती है

कई बार तुम्हारी परछाई तुम को समझाना चाहती है

हां, पर वह कुछ नहीं बोल पाती है

जब धूप ना हो तो आईने में उतर आती है

कभी तुम्हारी परछाई, कभी तुम्हारा अक्स बन जाती है

हां यही तो है वह जो तुम्हें कुछ गलत करने से रोकती है

कभी-कभी तुम्हारा जमीर बन जाती है

एक परछाई तो है जो जन्म के साथ आती है 

और शरीर के मिट्टी में मिलने तक साथ निभाती है


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