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Sudershan Khanna

Abstract

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Sudershan Khanna

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उलझन

उलझन

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आधुनिकता की अंधी दौड़ में

संस्कारों और संस्कृति की पोटली

फेंकते चले गए


ये कैसा गुमान हुआ

बुजुर्गों की नसीहतें

भूलते चले गए


परिंदों की चहचहाहट और

बारिश का संगीत

भूलते चले गए


आँगन की पवित्रता और

मन की शुद्धता

भूलते चले गए


निःस्वार्थ आपसी प्रेम

और अपनापन

भूलते चले गए


परिवारों से टूट हम

छिटक कर

बिखरते चले गए


ताऊ बड़े पापा चाचा छोटे पापा

रिश्तों के जुबानी याद नाम

भूलते चले गए


चाचा ताऊ के बच्चों की

कटोरी में पड़े घी को बस

गिनते चले गए


बच्चों की आपसी लड़ाई में

अपने मुंह सुजा कर

खुद को उलझाते चले गए


बेटियां सांझी होती हैं

क्या अपनी क्या परायीं

ये अब कौन मानता है


मुसीबत में परिवार की

एकता और संगठन को

अब कौन जानता है


ताऊ का बेटा

आगे निकल गया

चाचा के दिल को सालता है


बंटवारा कर दो 

रिश्तों के टुकड़े कर दो

दिल यही मानता है


माँ किसके पास रहे

बाप किसके पास

चिंता का सबब बना है


माँ बाप की दौलत

किसको कितनी मिलेगी

यह सोच नींद नहीं आती है


क्या क्या गिनाएं अब हम

यह सोचते सोचते

कलेजा छलनी हो आता है


कोई नहीं सुन रहा था तो

कस के झापड़ पड़ा

कोरोना वायरस का


भूली बिसरी संस्कृति और

बुजुर्गों के दिये संस्कार

फिर से याद आ गए


कुछ पलों के लिए ही सही

चिंता में डूब रहे मन को

राहत दिला गए


ए कोरोना ज़रा बता

तू किसका दुश्मन है

किसका दोस्त


अपने जीवन की

इस उलझन को

कैसे मैं सुलझाऊँ? 


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